2 November 2012

महिलाओं की पराधीनता और तीज-त्योहार



(इतिहास में हर चीज गतिशील है. आज व्रत-त्यौहार महिलाओं के पाँव की बेडी हैं, लेकिन एक दौर ऐसा भी गुजरा है जब स्त्रियों और शूद्रों के लिए पूजा-पाठ करना भी निषिद्ध था. ब्राहमणवादी विधि-निषेधों और पुरुष वर्चश्व के खिलाफ संघर्ष का का एक मुद्दा यह भी था कि स्त्रियों को उनके बराबर ही पूजा-पाठ का हक मिले. कश्मीर में ललद्यद या रूप भवानी और मीरा का संघर्ष इसी का प्रमाण है। कालांतर में पूजा-पाठ खुद ही महिलाओं की मानसिक गुलामी का अस्त्र बन गया। इसी विषय में प्रस्तुत है रति सक्सेना की यह विचारोत्तेजक टिप्पणी. –आधी दुनिया, साझी दुनिया)   

हम अपने भूत से बस उतना ही परिचित है, जितना सुना हैं, पढ़ने की कोशिश करते भी नहीं.... 

इस वक्त मेरे सामने स्मृति ग्रन्थ खुले है, मैं व्रत के बारे में खोज रही हूं तो अचम्भित करते तथ्य दिखाई देते है ( अंचम्भित अपने अज्ञान के प्रति, क्यों कि स्मृतियाँ तो सुरक्षित हैं हीं)

स्मृतियों में व्रतों के बारे विस्तार से बखान है, कि क्या करना चाहिये, क्या नहीं। मैंने देखा स्मृति शास्त्रों में स्त्रियों और शूद्रों को व्रत- उपवासों से पूरी तरह वंचित किया गया है, मेरे सामने अत्रि स्मृति (सोलह स्मृतियाँ है, कृपया ध्यान रखें) खुली है, जिसका 133वाँ और 134 , 135 श्लोक कहते हैं—

जप तप तीर्थ यात्रा , सन्यास , मन्त्र सिद्धी, और देवताओ की अराधना शूद्र और स्त्री के पतन का हेतु हैं। जो स्त्री पति के जीवित रहते हुए उपवास करती है वह पति की आयु कम करती है। यदि स्त्री को किसी तरह के पुण्य कर्म की इच्छा है तो वह पति के पाँव धोकर जल पीये।

अतःपरंप्रवक्ष्यामिस्त्रीशूद्रपतनानिच।
जपस्तपस्तीर्थयात्रा प्रव्रज्यामन्त्रसाधनम्।। अत्रि स्मृति १३३


देवताराधनचैवस्तरीशूद्रपतनानिषट।
जीवद्भर्तरियानारी उपोष्यव्रतचारिणी।।अत्रि स्मृति १३४


आयुष्यंहरतेभर्तुःसानारीनरकंब्रजेत।
तीर्थस्नानार्थिनीनारी पतिपादोदकंपिबेत्।। अत्रि स्मृति १३५


स्मृति काल वैदिक एवं उपनिषदिक काल से काफी बाद का है, लेकिन बृहदारण्यक उपनिषद में हम मेत्रैयी और याज्ञवल्यक्य की कथा पढ़ते हैं जहाँ याज्ञावल्क्य पत्नियों को छोड़ कर सन्यास हेतु वन जाने की बात कहते हैं तो मेत्रैयी यही सवाल करती है कि आपको तो आत्मज्ञान सन्यास से होगा तो आपके छोड़े गये धन से हमारी मुक्ति कैसे सम्भव होगी। यहाँ याज्यवल्क्य प्रसन्न होकर उपदेश देते है (क्या देते हैं, वह हमे उपनिषद में नहीं मिलता लेकिन दन्ड नहीं।) लेकिन स्मृति काल में तो दण्ड निश्चित कर दिया गया है। 

स्मृति काल स्त्री और शूद्रों के लिये बेहद कटु काल रहा है, लेकिन इसकी कटुता को हम अपने जीन में आज तक धारण करते आ रहे हैं। 
तो अब सवाल यह उठता है कि स्त्री ने पुरुष के संसार में कब सैंध मारी, कब उनके व्रत- उपवास उड़ा कर अपने बना लिये? यह एक रोचक विषय है और स्त्री स्वतन्त्रता का दूसरा मायने खोलता है। स्त्री ने ना केवल व्रत करना शुरु किया बल्कि पुरुष को भी भ्रमित कर स्त्री ने ना केवल व्रत करना शुरु किया बल्कि पुरुष को भी भ्रमित कर अपने काम में शामिल भी कर लिया। ध्यातव्य है कि स्त्री के व्रत अधिकतर पुत्र , पति या घर के लिये होते हैं, इसके पीछे भी कोई संज्ञान है क्या?

ध्यातव्य यह भी है कि पूर्णतया भक्ति या सन्यास के मार्ग में जाने वाली स्त्रियाँ समाज और परिवार से प्रताड़ित भी हुई, दक्षिण में अक्का महादेवी (माला चाहे हीरे की क्यो ना हो,/ बंधन ही है/ जाल चाहे मोतियों का क्यों ना हो/ रुकावट ही है,/ गर्दन चाहे/ सोने की तलवार से/ क्यो ना कटे/मौत ही है।/ हे प्रभु ! तुम ही बतलाओ/ जिन्दगी के फेर में पड़ कर क्या कोई छूट सकता है/ जनम मरण के बन्धन से)


कश्मीर में ललद्यद या रूप भवानी हो, मीरा का संघर्ष भी यही था।
मैंने बचपन से देखा था कि स्त्रियों की पूजा में किसी माध्यम यानी पण्डित की जरुरत नहीं होती, वे स्वय ही चावल हल्दी के एपन चौक पूर मिट्टी के ढ़ेले की गौर स्थापन कर चार छह कथा कह पूज लेती हैं। उनकी पूजाओं में पुरुषों की भी जरुरत नहीं पड़ती.... 

मै अब यह जानने की कोशिश कर रही हूँ कि व्रतहीन स्थिति से व्रत युक्त स्थिति तक आने में उन्हे कितना वक्त और कितनी मेहनत लगी.... और किस तरह से घर के भीतर ही उन्होंने विरोध की आग सुलगा कर रखी......
मैं अपनी माँ के इस विद्रोह कि साक्षी रही हूँ। (जब से मुझे याद है,) मैंने उन्हें सुबह सुबह मन्दिर जाते देखा है, इसके लिये उन्हे बेहद विरोध झेलना पड़ता था, वे सुबह तीन बजे ही उठ कर कपड़े धोकर नहा लेती और सबके उठने से पहले चुपचाप पूजा की थाली लेकर मन्दिर निकल जातीं। पिता दाँत पीसते रह जाते, गुस्सा होते लेकिन उनका विद्रोह चलता रहा। वे करीब सात बजे तक लौट भी आती, क्यो कि उन्हे नौ बजे तक पिता के लिये भोजन तैयार करना होता था.... लेकिन मन्दिर के नियम को नहीं तोड़ती... एक बार मैंने कहा कि जब घर में पिता जी को पसन्द नहीं तो आप मन्दिर क्यो जाती है, तो बोली कि सुबह -सुबह घर से निकलती हूँ तो ठण्डी हवा लगती है, मन्दिर में दण्डवत करों , जल चढ़ाओं को शरीर का व्यायाम हो जाता है, और कोई प्रवचन चल रहा हो तो दीमाग को दिन भर की खुराक मिल जाती है..... मैं तेरी- मेरी नहीं करती, इधर- उधर गप्पे नहीं लगाती तो मन्दिर और पूजा में क्या बुराई...

मेरी माँ स्त्रियों के विद्रोह की एक कड़ी थी, बस..... 


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