29 November 2012

क्या तुम जानते हो


क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत?

घर, प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी जमीन
के बारे में बता सकते हो तुम?

बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बैचेन स्त्री को
उसके घर का पता?

क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री?

सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने-आपसे लड़ते?

तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गांठें खोलकर
कभी पढ़ा है?

तुमने उसके भीतर का
खेलता इतिहास?
पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा के उसके चेहरे को?

उसके अन्दर वंशबीज बोते
क्या तुमने महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को
अपने भीतर?

क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्तों का
व्याकरण?

बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की
परिभाषा?

अगर नहीं!
तो फिर क्या जानते हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में ....?
     -निर्मला पुतुल

22 November 2012

मीडिया में औरतों की छवि कितनी सच्ची-कितनी झूठी


                                                           
                                             -सीमाश्रीवास्तव 

मीडिया, यानि फिल्म, टीवी और पत्र-पत्रिकाएँ. इन्हें समाज का आईना कहा जाता है. यानि यह माना जाता है कि समाज में जो कुछ भी हो रहा है, उसकी वैसी ही तस्वीर मीडिया लोगों के सामने पेश करता है. आज का सबसे सशक्त मीडिया है- टेलीविजन, क्योंकि यह दृश्य-श्रव्य माध्यम है और इसकी पहुँच दूर-दूर तक है. तो आइये, इस ‘आईने’ में हम औरतों की तस्वीर को देखते हैं.

टेलीविजन का बटन दबाते ही एक तस्वीर दिखेगी, कैटवाक करती किसी माडल की, तो दूसरे ही क्षण उसी चैनल पर साड़ी में सलीके से लिपटी पतिव्रता स्त्री की तस्वीर दिखाई जाएगी. कभी ऐश्वर्या राय और प्रियंका की खूबसूरती के राज बताये जायेंगे, तो दूसरी ओर उसी नेटवर्क पर किसी देवी की कहानी और उनके तथाकथित औरत धर्म का गुणगान किया जायेगा. कभी पूरे घर को खुश रखने के लिए अपनी इच्छाओं का गला घोंट देने वाली आदर्श गृहणी का, तो कभी अराजकता की हद तक अपनी मर्जी से जीती, भोग-विलास में लीन किसी स्वार्थी लड़की का चित्र. एक तीसरी तस्वीर भी है जिसमें औरत अपनी पहचान और आजीविका के लिए नौकरी करती है, पर घर की ख़ुशी या शादी में बाधा आने पर नौकरी  छोड़ देती. चाहे वह बहुत बड़े पद पर ही क्यों न हो, सास ससुर, पति की सेवा वह अपना प्रमुख धर्म समझती है. उस औरत की समाज में काफी प्रतिष्ठा है, पर घर में वह अपने पति की आज्ञाकारी पत्नी होती है. आज कल मीडिया औरतों की इस तस्वीर को खूब सजा संवार कर पेस कर रहा है.

मीडिया के एक माध्यम, टेलीविजन में औरतों की ये तीन तस्वीरें एक साथ ही पेश की जा रही हैं. औरतें  दुविधा में हैं कि वास्तव में कौन सी तस्वीर उनकी अपनी है या कौन सी तस्वीर उनकी होनी चाहिए. मीडिया पर दिखाई जाने वाली यह तस्वीर सिर्फ तस्वीर ही नहीं होती, बल्कि हमारे सामने एक आदर्श भी प्रस्तुत करती है कि “औरतों को ऐसा ही होना चाहिए‘’. तो आइये  विचार करते हैं कि इनमें से कौन सी तस्वीर हमारी है या होनी चाहिए .

पहली तस्वीर जो कि कोई उत्पाद बेचती या कैटवाक करती किसी माडल की है जिसे देखकर लगता ही नहीं कि वह हमारे समाज की लड़की है. उसके लिए छेड़छाड़, बलात्कार जैसी समस्या है ही नहीं, क्योंकि उसकी सुरक्षा की दीवार बहुत मजबूत है. उसकी मुख्य समस्या है कैसे अपने आपको ज्यादा से ज्यादा खूबसूरत बनाया जाये. उसकी समस्या और हमारी समस्या में कोई ताल मेल ही नहीं है. लगता है कि वह किसी दूसरी दुनिया की प्राणी है. अतः यह हमारी तस्वीर हो ही नहीं सकती.

दूसरी तस्वीर जो कई सदी पीछे की है, पर जिसे आजकल खूब चमकाकर पेश किया जा रहा है, वह है एक पतिव्रता स्त्री, आज्ञाकारी बहू-बेटी और त्यागमयी माँ की. धार्मिक-पारिवारिक धारावाहिकों के माध्यम से औरतों के सामने यह तस्वीर पेश की जा रही है. इन औरतों के लिए सबकुछ उनका परिवार ही होता है और ये सारी जरूरतों के लिए घर के पुरुष सदस्यों का मुँह देखती हैं. पहली तस्वीर वाली औरत को जितना ही उच्चश्रृंखल, गैरजिम्मेदार, खुदगर्ज और भोगवादी दिखाया जाता है, उतनी ही तीक्ष्णता से दूसरी तस्वीर की परम्परावादी और यथास्थितिवादी औरत आम दर्शकों को सहज स्वाभाविक लगने लगती है. हमारे समाज की ज्यादातर औरतों की जिन्दगी दूसरी तस्वीर से ज्यादा मेल खाती है और इस तस्वीर को महिमामंडित करने का मकसद उन्हें इसी स्थिति में बने रहने की प्रेरणा देना है. इसलिए कि भले ही औरतें आज घर में सिमटी हुई हैं पर समाज विकास के कारण घर से बाहर निकलकर पढ़-लिखकर नौकरी करने का सपना भी आज की औरतें देखने लगी हैं. आज औरतें निहायत पारम्परिक होकर नहीं जीना चाहती. वे अपनी पहचान और अस्तित्व के लिए सचेत हैं. वे इस घुटन से बाहर आने के लिए छटपटा रही हैं जबकि मीडिया उन्हें वापिस घर में लौटने का मूल्य परोस रहा है, जो कि वास्तव में एक अपराध है.

तीसरी तस्वीर जो देखने में काफी लुभावनी लगती है, जिसे देखकर लगता है कि दुनिया की सारी औरतें पढ़ी-लिखी और सभी आत्मनिर्भर हैं. सीरियलों में इन औरतों को इतना समर्थ दिखाया जाता है, जिसमें वे दफ्तर और घर दोनों का काम अत्यंत दक्षता के साथ करती हैं- बगैर थके, बिना किसी चिड़चिड़ाहट और गुस्से के. उसकी यह छवि देखकर आश्चर्य होता है कि कोई इन्सान इतना समर्थ कैसे हो सकता है. कहीं न कहीं इस तस्वीर के माध्यम से वे यह भी पुष्ट करना चाहतें हैं कि औरत कितना भी पढ़-लिख जाये, कुछ भी बन जाये, घरेलु जिम्मेदारियां तो उसे ही निभानी है. विज्ञान टेक्नोलॉजी चाहे जहाँ पहुँच जाये घरेलु श्रम उसके हिस्से का ही है. यदि उसमें खरीदने की क्षमता हो तो वह कपड़े हाथ से नहीं, वाशिंग मशीन से धो रही है और घर की सफाई वैक्यूम क्लीनर से कर रही है. लेकिन काम की जिम्मेदारी उसी की है. हमारे समाज में स्त्रियों की स्थिति टीवी में दिखने वाली इस तस्वीर के विपरीत है. विश्व बैंक के ताजे सर्वक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश में 90 प्रतिशत औरतों को घर से बाहर कदम रखने के लिए पुरुषों की इजाजत लेनी पड़ती है तथा निर्णय लेने का अधिकार अभी भी एक तिहाई औरतों को नहीं है. टीवी पर दिखने वाली इन औरतों को भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर दिखाया जाता है, पर मानसिक रूप से वे भी अपने पिता, पति या पुत्र पर निर्भर रहती हैं. ये पुरुषवादी जकड़न को तोड़ने में लगी हुई तो दिखाई जाती हैं पर अंततः ख़ुशी-ख़ुशी समझौता भी कर लेती हैं. यह तस्वीर औरतों की आजादी के लिए ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इनमें इन समझौतों को इतने सुन्दर तरीके से पेश किया जाता है कि हमें लगता है कि “हाँ ऐसा ही होना चहिए.” जाहिर है कि हमारे सामने जब वैसे ही परिस्थिति आएगी तो हम भी वैसा ही करेंगे और अपनी आजादी खो देंगे.

इन तस्वीरों पर गहराई से विचार करने पर स्पष्ट हो जाता है कि दरअसल ये तीनों ही तस्वीरें औरत विरोधी और पुरुषवादी मानसिकता की पोषक हैं. पहली, औरत को शरीर के रूप में पेश करती है, दूसरी पुरुष की दासी के रूप में और तीसरी तस्वीर गलत समझौते को आदर्श मूल्य बनाकर पेश करती है.

ये तीनों ही तस्वीर औरतों को छल और बरगलाने वाली हैं. अतः मीडिया के इस झूटे आईने को तोड़कर हमें अपनी एक नई तस्वीर तलाशनी होगी जिसमें औरत इस सड़े-गले, पिछड़े समाज की मूल्यों-मान्यताओं से जूझ तो रही होगी पर उसके चेहरे पर अपने पिछले संघर्षों की दमक भी होगी, उन संघर्षों की दमक जिनके बल पर उसने ढेर सारे अधिकार हासिल किए हैं और ढेरों अधिकार अभी उसे हासिल करने हैं. यही हमारी सच्ची तस्वीर होगी.